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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


स्‍वामिनी मुंशी प्रेम चंद
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कई महीने बीत गये। प्यारी के अधिकार मे आते ही उस घर मे जैसे वसंत आ गया। भीतर-बाहर जहाँ देखिए, किसी निपुण प्रबंधक के हस्तकौशल, सुविचार और सुरूचि के चिह्न दिखते थे। प्यारी ने गृहयंत्र की ऐसी चाभी कस दी थी कि सभी पुरजे ठीक-ठाक चलने लगे थे। भोजन पहले से अच्छा मिलता है और समय पर मिलता है। दूध ज्यादा होता है, घी ज्यादा होता है, और काम ज्यादा होता है। प्यारी न खुद विश्राम लेती है, न दूसरों को विश्राम लेने देती है। घर में ऐसी बरकत आ गयी है कि जो चीज माँगो, घर ही में निकल आती है। आदमी से लेकर जानवर तक सभी स्वस्थ दिखाई देते हैं। अब वह पहले की-सी दशा नहीं है कि कोई चिथड़े लपेटे घूम रहा है, किसी को गहने की धुन सवार है। हाँ अगर कोई रूग्ण और चिंतित तथा मलिन वेष में है, तो वह प्यारी है; फिर भी सारा घर उससे जलता है। यहाँ तक कि बूढ़े शिवदास भी कभी-कभी उसकी बदगोई करते हैं। किसी को पहर रात रहे उठना अच्छा नहीं लगता। मेहनत से सभी जी चुराते हैं। फिर भी यह सब मानते हैं कि प्यारी न हो, तो घर का काम न चले। और तो और, दोनों बहनों में भी अब उतना अपनापन नहीं।
प्रात:काल का समय था। दुलारी ने हाथों के कड़े लाकर प्यारी के सामने पटक दिये और घुन्नाई हुई बोली- लेकर इसे भी भंडारे में बंद कर दे।
प्यारी ने कड़े उठा लिये और कोमल स्वर से कहा- कह तो दिया, हाथ में रूपये आने दे, बनवा दूँगी। अभी ऐसा घिस नहीं गया है कि आज ही उतारकर फेंक दिया जाय।
दुलारी लड़ने को तैयार होकर आयी थी। बोली- तेरे हाथ में काहे को कभी रूपये आयेंगे और काहे को कड़े बनेंगे। जोड़- जोड़ रखने में मजा आता है न?
प्यारी ने हॅंसकर कहा- जोड़-जोड़ रखती हूँ तो तेरे ही लिए कि मेरे कोई और बैठा हुआ है, कि मैं सबसे ज्यादा खा-पहन लेती हूँ। मेरा अनंत कब का टूटा पड़ा है।
दुलारी- तुम न खाओ-न पहनो, जस तो पाती हो। यहाँ खाने-पहनने के सिवा और क्या है? मैं तुम्हारा हिसाब-किताब नहीं जानती, मेरे कड़े आज बनने को भेज दो।
प्यारी ने सरल विनोद के भाव से पूछा- रूपये न हों, तो कहाँ से लाऊँ?
दुलारी ने उद्दंडता के साथ कहा- मुझे इससे कोई मतलब नहीं। मैं तो कड़े चाहती हूँ।
इसी तरह घर के सब आदमी अपने-अपने अवसर पर प्यारी को दो-चार खोटी-खरी सुना जाते थे, और वह गरीब सबकी धौंस हँसकर सहती थी। स्वामिनी का यह धर्म है कि सबकी धौंस सुन ले और करे वही, जिसमें घर का कल्याण हो! स्वामित्व के कवच पर धौंस, ताने, धमकी किसी का असर न होता। उसकी स्वामिनी की कल्पना इन आघातों से और भी स्वस्थ होती थी। वह गृहस्थी की संचालिका है। सभी अपने-अपने दु:ख उसी के सामने रोते हैं, पर जो कुछ वह करती है, वही होता है। इतना उसे प्रसन्न करने के लिए काफी था। गाँव में प्यारी की सराहना होती थी। अभी उम्र ही क्या है, लेकिन सारे घर को सँभाले हुए है। चाहती तो सगाई करके चैन से रहती। इस घर के पीछे अपने को मिटाये देती है। कभी किसी से हँसती-बोलती भी नहीं, जैसे काया पलट हो गयी।
कई दिन बाद दुलारी के कड़े बनकर आ गये। प्यारी खुद सुनार के घर दौड़-दौड़ गयी।
संध्या हो गयी थी। दुलारी और मथुरा हाट से लौटे। प्यारी ने नये कड़े दुलारी को दिये। दुलारी निहाल हो गयी। चटपट कड़े पहने और दौड़ी हुई बरौठे में जाकर मथुरा को दिखाने लगी। प्यारी बरौठे के द्वार पर छिपी खड़ी यह दृश्य देखने लगी। उसकी आँखें सजल हो गयीं। दुलारी उससे कुल तीन ही साल तो छोटी है! पर दोनों में कितना अंतर है। उसकी आँखें मानों उस दृश्य पर जम गयीं, दम्पति का वह सरल आनंद, उनका प्रेमालिंगन, उनकी मुग्ध मुद्रा- प्यारी की टकटकी-सी बँध गयी, यहाँ तक कि दीपक के धुँधले प्रकाश में वे दोनों उसकी नजरों से गायब हो गये और अपने ही अतीत जीवन की एक लीला आँखों के सामने बार-बार नये-नये रूप में आने लगी।
सहसा शिवदास ने पुकारा- बड़ी बहू! एक पैसा दो। तमाखू मॅंगवाऊँ।
प्यारी की समाधि टूट गयी। आँसू पोंछती हुई भंडारे में पैसा लेने चली गयी।

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